पुस्तक समीक्षा : Liberal who never went to JNU

ये पुस्तक मूलतः राहुल रोशन की किताब ‘संघी हू नेवर वेंट टू ए शाखा ” के जवाब में लिखी गयी है। राहुल रोशन की पुस्तक करोडो भारतीयों की खुद की कहानी लगती है। और ऐसे में इस प्रकार के जालिम संघियो को जवाब देना जरुरी है। और ये पुस्तक इस भाव से ही लिखी गयी है

ये कहानी हर उस लिबरल की कहानी है जो जीवन में हार-हार के थक चूका है और हर चीज में संघर्ष ढूंढता है। अगर आप एक सच्चे लिबरल है और किसी भी हिन्दू त्यौहार पर सस्ता ज्ञान देते पाए जाते है तो आप इस किताब को अच्छे से फील कर पाएंगे।

शुरुआती कुछ चैप्टर लेखक के अंतर्द्वंद को दर्शाते है जहा उन्हें लोगो का व्यवहार और हरकते गलत तो लगती है लेकिन आस पास सब को देखर धीरे-धीरे ये सही गलत की भावना कही दूर चली जाती है और कल्ट की भावना हावी हो जाती है।

ये एक प्रकार से लेखक की बायोग्राफी भी है लेकिन साथ में ही ये पुराने भारत की कहानी भी है। वो भारत, जहां पीएचडी स्टूडेंट पचीस से पचास की उम्र तक अपने कॉलेज के हॉस्टल में ही रहते है , वो भारत जहाँ स्टूडेंट पढाई को छोड़कर सब कुछ करते है।

ये जरुरी नहीं कि सच्चा लिबरल कहलाने के लिया आपको जे एन यू में एडमिशन लेना पड़े। आप सच्चे लिबरल बन सकते है और आप कुछ मुख्य चीजों को अपने जीवन में लाये। लेखक इस विषय पर काफी ध्यान देते है। हिन्दू रीति रिवाजो से नफ़रत, मोदी और बीजेपी समर्थको से अंतहीन घृणा और हर दूसरी चीज में संघर्ष और धरने के अवसर ढूंढ़ना आपको एक बढ़िया लिबरल बना सकता है। अगर आप आजादी आजादी चाहते है तो फिर तो आप से अच्छा लिबरल कोई नहीं।

अपने बचपन का जिक्र करते हुए लेखक ये बताते है कि किस तरह से एक बार पैसे चुराने पर एक ब्राह्मण लड़के ने उन्हें बल भर कूट दिया था। अब क्या चंद पैसे चुराना भी गुनाह है। लेकिन ब्राह्मणवादी सोच के लोग तो ऐसा ही सोचते है।

नशा पत्ती पर एक पूरा चैप्टर समर्पित है। बियर से शुरू होकर गांजा और चरस तक का सफर लेखक ने काफी अच्छे से बताया है। चरस के नशे में आजादी मांगना ही लिबरल का धरम है।

एक लिबरल के जीवन पर लिखी पुस्तक बिना नरेंद्र मोदी का नाम लिए कैसे पूरी हो सकती है। लेखक ,बीजेपी की पूर्ण बहुमत से 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावो में जबरदस्त जीत के बारे में काफी चर्चा करते है। चुनाव नतीजों के बाद , किस तरह से, एक-एक पल भारी लगता था और देश की जनता की राजनीतिक समझ पर तरस आता था। वो तो चरस थी जिसने उस वक्त संभाल लिया।

कुल मिला कर ये पुस्तक एक वैचारिक यात्रा है और लेखक के बचन से बुढ़ापे तक के सफर में किस प्रकार से उनके विचार, आस पास होती घटनाओ से प्रभावित हुए, इस पर काफी जोर दिया गया है। यह यात्रा इतनी रोचक और एक्शन से भरपूर है कि पाठक भी चौंकते है। जब लेखक चरस पीकर एक दुनिया में खो जाने कि बात करते है, पाठक भी उसे महसूस कर पाते है।

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